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समझदार (लघुकथा)

   समझदार “ मंजरी बहुत समझदार है , वो इस बार भी इनकार ना करेगी I” सासू माँ ने उसकी तरफ देखकर मुस्कुराते हुए कहा I लेकिन आज यह समझदार शब्द हथौड़े की तरह उसके मन मस्तिष्क पर चोट कर गया और उसकी ऊँगली पकड़कर अतीत की गलियों में ले गया I बचपन से लेकर जवानी तक कि न जाने कितनी ही घटनाएं मुँह बाये सामने खड़ी मिलीं I “ अरे दूध कम है , आज लड़कों को ही दे दो I मंजरी तो समझदार है समझ जाएगी I” माँ ने दोनों भाइयों के गिलास भर दिए थे I “ तुझे पढ़ लिख कर क्या करना है ? तू तो समझदार है घर के काम काज पर ध्यान दे I” उसकी दादी ने उस पर तुषारापात किया था I “ तू तो समझदार है बेटी तेरे भाई तो कॉलेज   में पढ़ते हैं , उनके लिए नए कपड़े लेना ज़रूरी है , I” बापू ने उसको समझाते हुए कहा था I “ देख बेटी वर की उम्र ज्यादा है तो क्या हुआ ? लेकिन बिना दहेज़ के शादी कर रहा है I तू तो समझदार है , हमारी हालत तुमसे छुपी है क्या ?” माँ की कड़वी लेकिन सच्ची बात ने उसकी

सहज साहित्य: 812-जागे सारी रात

चैन की साँस

हर दिन एक नयी शुरुआत ... हर दिन सोचना शायद अब कुछ बदल जायेगा.. रोज का नियम सा बन गया है . मगर कुछ बदलने वाला नहीं है... हर औरत की जिंदगी एक जगह आ कर ठहर सी जाती है वही मुकाम आ गया है मेरे जीवन मे भी ...पति देव का अपना शिकायतों का पिटारा है ...सासू माँ की अपनी शिकायतें ...क्या कभी किसी ने ये जानने की कोशिश भी की, कि मुझे क्या चाहिए? हमेशा अपनी पसंद थोपना, अपनी ही चलाना मै भी इन्सान हूँ.. मेरी भी कुछ पसंद नापसंद हो सकती है उस से किसी को क्या लेना देना....शुरू के कुछ साल तो कपूर के जैसे उड़ गए पता ही नहीं चले ... कुछ नए रिश्तों मे एक दूसरे को जानने मे निकल गए और कुछ बच्चों की परवरिश मे... अब जब जिंदगी मे थोड़ा ठहराव आना चाहिए तो ये रात दिन की किट किट...बेवजह के झगडे.. नाराजगी ..जड़ मे कोई खास बात होती भी नहीं, मगर... बात है कि खत्म भी नहीं होती ...ज़रा ज़रा सी बात इतनी बड़ी हो जाती है कि कहना दुश्वार... बस कुछ मेरा मन भी विद्रोही हो गया है क्यों सुनू सबकी ...मेरा गुनाह औरत हूँ ? या पढेलिखे परिवार से हूँ? या हर सही गलत को सर झुका कर न मानने की आदत ? अगर ये ही है तो मेरी गलती नहीं है ... म